देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
इस कविता भाग की व्यख्या करते समय हमारे अध्यापक बन्धुओं के मन में अभी शंकाएँ बाकी है। इन शंकाओं को दूर करने केलिए सहायता करें...
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
इस कविता भाग की व्यख्या करते समय हमारे अध्यापक बन्धुओं के मन में अभी शंकाएँ बाकी है। इन शंकाओं को दूर करने केलिए सहायता करें...
कवि वहाँ रुककर पत्थर तोड़ने वाली औरत को देखा। वैसे ही उस औरत ने भी कवि को देखते देखा। उसी दृष्टि से उसने उस मकान की ओर देखा। ये देखने वाला मैं अकेला ही था। उसने अपनी तार-तार फटी हुई कपड़ों की ओर दृष्टि डाली। उसने कवि को उस व्यक्ति की भाँति देखा,जो मार खाने पर भी न रोनेवाली थी। एक दृष्टि द्वारा ही उसने मुझे अपनी संपूर्ण करुण कथा उसी प्रकार सुना दी जिस प्रकार कोई सितार पर सहज भाव से उँगलियाँ चलाकर एक अभूतपूर्व झंकार उत्पन्न करा देती।
ReplyDelete-मिनी एस आर (GCVHSS,KOTTARAKKARA)